थाम के रखिये नन्हीं पतंग की डोर

थाम के रखिये नन्हीं पतंग की डोर

उम्र से पहले बड़े होते बच्चों के साथ होती घटनाओं का विश्लेषण कर-कर के आज जब की परवरिश को ले कर मीडिया आपको काफ़ी संवेदनशील बना चुका हैं और आप भी इतना तो अच्छे से समझ गए हैं – आपको बच्चों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध रखने हैं, बहुत जरुरी हैं की बच्चों की बात सुनी जाये, उन्हें ये एहसास दिलाया जाये की वे आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, और आप उनसे बहुत प्यार करते हैं।

 परवरिश को ले कर सोशल मीडिया पर ज्ञान (अधूरे) की बाढ़ हैं — देखिये बच्चों पर कितना दबाव हैं पढाई और स्पर्धा का….  छोटे छोटे बच्चे आजकल डिप्रेशन में चले जाते हैं! बच्चों को समझिये…  उनकी भावनाओं को प्राथमिकता दीजिये… उनको अपनी बात खुल कर कहने का अधिकार दीजिये…  उनसे पूरे सम्मान के साथ बात कीजिये की कहीं वे कुछ ऐसा वैसा कर न बैठे वगैरह वगैरह। 

आपको भी तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता जब आपका बच्चा उदास और खिन्न (upset) हो और वो उदास और खिन्न तब होता हैं जब भी आप उसकी कोई बात नहीं मानते हैं ! ओह पर उदासी/ खिन्नता से तो बच्चे में डिप्रेशन आ सकता हैं ! पढ़ा हैं आपने कहीं। आपको  उसकी बात सुननी होगी, उसकी भावनाओं को महत्व देना होगा और यही आपकी सोच का केंद्र बिंदु बनता जा रहा हैं की हर हाल में आपको बच्चे को relax रखना है, उसे यकीन दिलाना हैं की आप हैं उसके लिए हमेशा।

और इसी के चलते,

— क्योंकि हम अपने बच्चे को खुश देखना चाहते है, इसलिए अक्सर उसे “ना” कहना चाहते हुए भी “हाँ” कह देते है; 

— हम चाहते हैं की बच्चे अपनी राय रख सकें इसलिए उन्हें पलट कर तीखे जवाब देने देते हैं; 

— हम चाहते हैं की खाना खाते समय उनका मूड न खराब हों, हमारे बच्चे ठीक से खाये इसलिए खाने की मेज पर उनके बुरे बर्ताव को नज़रअंदाज़ कर देते हैं; 

— हम चाहते हैं की बच्चों को लगे की वे महत्वपूर्ण हैं इसलिए उन्हें ये अधिकार भी दे देते हैं की वे हमें बताएं कि हमें उनसे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं।

और फिर एक दिन हमें एहसास होने लगता हैं कि जाने अनजाने हमने ऐसे बच्चे तैयार कर दिए हैं जो हम से हर बात पर असहमति रखते हैं, जिन्हें “ना” सुनना बर्दाश्त नहीं होता और जो मुश्किल से 4-5 चीजें ही भोजन में पसंद करते हैं। जी हाँ, आपको बिलकुल सही लग रहा हैं और सिर्फ आप ही नहीं दुनियाँ के हर हिस्सें में लोग इन्हे “बिगड़ैल” बच्चे (brats) ही समझते हैं। आखिर कहाँ हो जाती हैं चूक?

क्या सख्ती रखी जानी चाहिए बच्चों के साथ? क्या उनकी भावनाओं को नकार दें? उलझनों को अनदेखा कर दें? नहीं, बिलकुल नहीं पर संवेदनशील होने के साथ-साथ  विवेकी होना भी उतना ही आवश्यक हैं। जो दिख रहा हैं और जो वास्तव में घट रहा हैं उसके फर्क को परखिये।

आम तौर पर दिखने वाले कुछ दृश्य है ये :

डिपार्टमेन्टल स्टोर के फर्श पर हाथ पैर पटक पटक कर रोता हुआ दो साल का बच्चा ये सब एक चॉक्लेट के लिए कर रहा हैं
तीसरी क्लास में पढ़ने वाला बच्चा खाने की प्लेट को देख कर मुँह बिचका रहा हैं वह सब्जी नहीं चिप्स चाहता हैं
12 साल की बिटिया बहुत ही छोटा स्कर्ट पहनने की ज़िद्द में आँखे दिखा रही हैं, वह अपनी सहेलियों के बीच स्टाइलिश दिखना चाहती हैं

ये कौनसी बड़ी बाते हैं… एक चॉक्लेट ही तो हैं दिला दो क्यों तमाशा बनाना लोगों के सामने, चिप्स तो चिप्स ही सही…. जो मांग रहा है दे दो कम से कम भूखा तो नहीं रहेगा,  बड़ी हो रही हैं बिटिया, इस उम्र के बच्चों को टोकना नहीं चाहिए, करने दो जो चाहती हैं। अब बच्चे खुश हैं। बधाई हो !

पर, ‘अच्छे’ मम्मी पापा आप फेल हो गए हैं !

वास्तव में ये बच्चे ये सब नहीं चाहते थे, बल्कि इस समय इन्हे चाहिए थी अपनी सीमाओं की जानकारी, सही अपेक्षाओं की जानकारी।ये सब मौके बच्चों की ‘तबियत खुश’ करने के अवसर नहीं हैं ! ये हैं उनके अनुशासन सीखने का अवसर, खुद को जिम्मेदार बनाने का अवसर। बहुत गहरे में कहीं वे इस समय उन्हें ज़रूरत हैं की उनके माता पिता दखल दें। कहें, कि नहीं! ये ठीक नहीं हैं। तुम्हे ये नहीं करना हैं, और मुझसे अपनी बात मनवाने के लिए तुम्हे ये सब हरकतें करने की कोई जरुरत नहीं हैं। और आपके लिए अवसर है ये साबित करने का कि, अपने बच्चे से इतना प्यार तो है आपको की आप उन्हें अपनी बात कहने का सही तरीका सिखा सकें।

बच्चों की बात ना मानने से वे दब्बू रह जाते हैं, उनमे आत्मविश्वास नहीं आ पाता, उनको भी हक़ होना चाहिए अपनी बात कहने का आख़िरकार आजकल के बच्चे काफी स्मार्ट है, सब जानते समझते हैं। हो सकता है आपके स्मार्ट बच्चे नियंत्रण अपने हाथ में पा कर थोड़ी देर के लिए अच्छा महसूस करें, उन्हें मज़ा आये की उन पर खाने पीने की बंदिशें नहीं हैं, दूध नहीं पिया फ्रिज से निकाल कर कोक पी ली — कूल मॉम है आप ! कितने मज़ेदार गेम्स होते हैं मोबाइल पर और आपका मोबाइल तो सारा दिन उसी के हाथ में रहता हैं — कूल मॉम है आप !

देखने में खुश ये बच्चे अंदर कहीं बहुत तनाव में रहते हैं, खान पान की गड़बड़िया- शरीर में आलस भर रही हैं, थकी हुई आँखे और दिमाग वजह भी नहीं जानते, अव्यवस्थित दिनचर्या स्कूल में असर डाल रहीं हैं। जितना तनाव बढ़ रहा हैं उतना ही junk फ़ूड और अपनी ओर खींचता हैं, स्कूल के लिए उत्साह घट रहा हैं इसलिए मन मोबाइल गेम्स में जीत हाँसिल करते रहना चाहता हैं… बढ़ता जा रहा हैं screen time और बढ़ती जा रही हैं दिमाग और आँखों की थकान, बढ़ रहा है चिड़चिड़ापन और बच्चे का मूड अच्छा रखने के लिए आप मानते जा रहे है उसकी हर बात।

हाँ, वो स्मार्ट हैं, चुटकियों में सीख जाता है मोबाइल की हर नयी तकनीक पर वह बच्चा हैं। तमाम बुद्धि चातुर्य के बावजूद उसके पास जीवन का अनुभव नहीं हैं। वह ‘आप’ नहीं है और उसे “आपकी” बहुत अधिक आवश्यकता हैं। वह चाहता हैं की कोई हो जो ये सब सम्हाल ले, कोई हो जो — ये सब अजीब सा जो हैं उसे ठीक कर दें।

“बच्चों का चाहना और आपका मानना” उन पर कुछ इस तरह से असर करता है —

 मान लीजिये आपकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही। क्या हो रहा है आप खुद भी नहीं जानते। आप डॉक्टर के पास जाते हैं, आपने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बहुत पढ़ा हैं की आजकल एंटीबायोटिक्स के कारण बहुत खतरनाक साइड इफेक्ट्स होते हैं (आखिर आप भी तो स्मार्ट हैं सब जानकारी रखते हैं). डॉक्टर को देखते ही आप शुरू हो जाते हैं, “देखों डॉक्टर साहब फालतू एंटीबायोटिक्स तो मुझे देना ही मत।” आपके ऐसे रूप को देख कर डॉक्टर साहब परेशां हो जाते हैं, “ओह अच्छा एंटीबायोटिक नहीं चाहिए आपको, ठीक है मैं समझ गया, आप ये होमियोपैथी की दवाइयाँ ले लीजिये या और कोई भी दवाई जो आप कहें वो लिख देता हूँ बताइये क्या क्या लिखना हैं”

या कल्पना कीजिये आपको अपने देश के राष्ट्रपति से मिलने का अवसर मिला और आपने उनसे कहा की आपका मानना है की युद्ध बहुत ही खराब चीज होती हैं (आखिर आप जागरूक और संवेदनशील नागरिक है और अपनी स्वतंत्र राय रखते हैं) . आपकी बात सुन कर राष्ट्रपति तुरंत सभी सेनाओं को निरस्त कर देता हैं। 

मज़ा आया ?  सब आपके नियंत्रण में हैं !  आप की पसंद – नापसंद का कितना महत्व हैं !  30 सेकिंड्स के लिए तो हाँ, बहुत बढ़िया लगा फिर तुरंत ही आप को ये सब लोग पागल लगेंगे। बिना आपको चैक किये आपसे ही पूछ रहा है की पसंद की दवाइयां बता दो ! अरे ! डॉक्टर वो हैं कि मैं ! मेरे लिए कौन सी दवाई है ये मुझे क्या पता ! और ऐसे किसी के कहने से कोई देश कभी अपनी सेनाओं को निरस्त करता हैं क्या!! हमारी सुरक्षा कौन करेगा ??? ये सब लोगअपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का कोई एहसास होना चाहिए की नहीं। मेरे कहने से क्या होता हैं, मुझे क्या पता सारी बातों का ! मैंने तो बस अपनी राय रखी थी… ठीक है, थोड़ा परेशान था तो ऊँचा बोल गया पर आखिर सही निर्णय लेने की जिम्मेदारी तो उनकी हैं न।

बिलकुल यहीं बात हैं, बच्चे भी ठीक इसी तरह निश्चिन्त होना चाहते हैं की उनका जीवन सही हाथों में हैं। आपके शहर में बनने वाला पुल बहुत दिनों तक ट्रैफिक के लिए परेशानी बनता हैं… आप सरकार को कोसते भी हैं, फिर एक दिन जब वो बन जाता हैं और आप पाते हैं की अब पहले से भी कितना सरल और व्यवस्थित हो गया हैं सब कुछ। आप भी सरकार है अपने बच्चे के जीवन की जिसे उनकी कुछ देर की सुविधा नहीं बल्कि सुरक्षा और विकास की बड़ी तस्वीर दिखनी चाहिए। 

अपने बच्चों को आश्वस्त कीजिये की उनकी बात आपके लिए महत्व रखती हैं, दीजिये उन्हें खुले आसमान में सैर की आज़ादी पर उन्हें ये एहसास भी दिलाइये की डोर तो आपके हाथ में ही हैं 🙂